उद्द्वेलित मन जब दम्भ भरे
भीतर का अहम जब नृत्य करे
जब लगे तुझे तू ही सर्वश्रेष्ठ
शमशान घाट होकर आना ॥
धधकती है चहु ओर लपटें
मौन स्नेही जन खड़े
विचलित ह्रदय है डगमगाता
'वह' स्वछन्द होकर चल दिए
क्या, कनक द्रव्य का अहंकार
है व्यर्थ, धरा सब अलंकार
इत्र -सुगंघ में लिपटे शिथिल पढ़े
प्रियवर ही मुख पर अग्नि धरे
कंपित कर से दृढ होकर के
करते है मुण्डक पर प्रहार
झंझोर उठेगा हिय अचरज में
है कहाँ सत्य का आदि पृष्ठ ?
जब लगे तुझे तू ही सर्वश्रेष्ठ
शमशान घाट होकर आना ॥
जब पंच तत्व का यह शरीर
तजता जग को हो मूक-बहीर
आखिर ! माटी देह मिले माटी में
औ' अग्नि से अनल मिले
चट्ट चट्ट की ध्वनि होती हुंकार
धू धू कर जलता तत्व सार
आखिर ! माटी देह मिले माटी में
औ' अग्नि से अनल मिले
चट्ट चट्ट की ध्वनि होती हुंकार
धू धू कर जलता तत्व सार
नयनो के सम्मुख सकल देह
होती जाती वायु में विलीन
होती जाती वायु में विलीन
अब कहो अनुज, है कौन ज्येष्ठ ?
जब लगे तुझे तू ही सर्वश्रेष्ठ
जब लगे तुझे तू ही सर्वश्रेष्ठ
है धन्य यहां की पावन भूमि
निर्भय हो जिसने कदम धरा
इस मलीन काया के मोही मन से
तन धवल पुण्य ऋणमुक्त हुआ
यदि जीवित स्वयं मै आ न सकूँ
अपनों संग आउंगी अवश्य
कैसा मधुर मिलन अद्भुत होगा
फिर सृस्टि का नया सृजन होगा
यदि जीवित स्वयं मै आ न सकूँ
अपनों संग आउंगी अवश्य
कैसा मधुर मिलन अद्भुत होगा
फिर सृस्टि का नया सृजन होगा
उठ आवभगत करना,आलिंगन भर
तू ही सच्चा मित्र घनिष्ठ
जब लगे तुझे तू ही सर्वश्रेष्ठ
शमशान घाट होकर आना ॥
No comments:
Post a Comment