Wednesday, October 28, 2015

मेहमानवाज़ी


सोचा आज उनकी मेहमानवाज़ी की जाए
वो आयें ना  आयें तैयारी तो की जाए!

करीने से रख दिया है  शरबत का ज़ार
मेज पर मोमबत्ती बैठी, पिघलने को तैयार

सजाया है बीचोबीच, इक गुलदस्ता दिलकश
भीनी-भीनी खुशबू में कुछ तो होगी कशिश

सुना है शौक़ीन हैं वो, क्यों ना साज़ लगा दिया जाये
वो आयें ना आयें  तैयारी तो की जाये!

बेतरतीब किताबो को, कतार में लगाया है
थके कदमो की खातिर, कालीन बिछाया है

इक लम्बी दास्ताने-किताब लिए बैठे है हम भी
हुज़ूर ! कभी तो  इधर भी मेहरबानी हो जाये

सुना है कातिब हैं वो, क्यों ना एक कलम रख दी जाये
वो आयें ना आयें  तैयारी तो की जाये!

आईने में खुद को इत्मीनान से उतारा है
सांवली सूरत को बड़े नाज़ो से सवारा है

काजल-लाली-कंगन-बाली, सब बेकार ना जाए
या इलाही ! बस एक नज़र तो गौर फरमाये

सुना है जादूगर  हैं वो,  क्यों न एक ताबीज़ पहन ली जाये
वो आएं ना  आयें तैयारी  तो की जाए!

Tuesday, October 27, 2015

गौरव













परीकथा सा यह जीवन
सच है  तुमसे पाया मैंने
इठलाती हूँ मैं मन ही मन
जब पहले पहल छुआ तुमने...

मैं बीच भंवर में गुमसुम सी
कुछ भनक न थी अब आगे क्या
तुम दूर देश से यूँ आये
ना शोर किया  ना जोर किया
कब हाथ बढाकर हौले से
सच है, तुमने ही तो पार किया....

दिखावे की दुनियादारी में
रिश्तो के कठिन पड़ावो में
तुम कभी सादगी की चादर
और कभी चांदनी की रिमझिम
मुस्काते  जब सजल नयन
सच है,मृदु जीवन तुमसे ही पाया मैंने....

मैं हूँ पतंग सी अम्बर में
कुछ लहराती बलखाती हूँ
ये हवा के रुख का काम नहीं
है जो ये डोर तुम्हारे हाथो में

माथे का कुंकुम तुमसे ही
सुख दुःख का संगम तुमसे ही
मैं कहु ना कहु पर सच है ये
नलिनी का गौरव तुमसे ही...

बेदर्द




कैसी बेदर्द थी वो
मै जोड़ता रहा , वो तोड़ती  रही

भरी महफ़िल में तमाशा बनाकर
बुत सी  खड़ी  तमाशबीन बनी रही
मै पड़ा  कराहता रहा
वो खड़ी -खड़ी  दूर से मुस्कुराती रही
कैसी बेदर्द थी वो ....

किस हक़ से उसने लूटा मुझे
मेरा कुसूर तो ज़रा बताती
सामने खड़ा था मै उसके
वो मुड़ - मुड़ कर  किसी को तलाशती  रही
कैसी बेदर्द थी वो....

बड़ी मग़रूर थी वो
पर, माँ की आँखों का नूर थी वो
सारे मिलकर दीये जलाते रहे
वो फूक -फूक कर सबको बुझाती रही
कैसी बेदर्द थी वो 
मै जोड़ता रहा , वो तोड़ती  रही

ख़तावार कौन ?











टूटी वो ऐसी   की अपनों से ही रूठ गयी
ठगा किसी ग़ैर ने या खुद ही खुद में छली गयीl

करते हैं जो लोग उसके सब्र की बात
उखड़ते देखा है उन्हें भी  हर अमावस की रात 

दूर से हर मुश्किल  आसान  लगती है
गिरो जब दरिया में खुद, तब अक्ल न काम करती है

ख़ता  सबकी है सज़ा तो सभी  पाएंगे 
बिगड़े  हालात में भला सुकून कहां पाएंगे

डूबते-डूबते  पार तो हो ही जाएगी
क्या पता आगे खुद ही 'संवर' जाएगी

मुंतज़िर




आँखों की आज़माइश हुई ही नहीं
सरगोशियों में ही बस गुफ्तगूं रही

उम्र-ए-नादानी थी या हुनर-ए हाजिरजवाबी
फासले अपनी जगह, राब्ता-ए- कश्ती चलती रही

वस्ल-ए-चाहत  पूरी हुई ही नहीं
सालों दर साल बस मुंतज़िरी ही रही

गुजरे उस बरस में ऐसा मोड़ आया
वादियों में आबो-हवा ही बदल गयी

मुद्दतो बाद नज़र आये भी तो क्या
जाते-जाते बस तोहमत लगा गए