Tuesday, October 27, 2015

बेदर्द




कैसी बेदर्द थी वो
मै जोड़ता रहा , वो तोड़ती  रही

भरी महफ़िल में तमाशा बनाकर
बुत सी  खड़ी  तमाशबीन बनी रही
मै पड़ा  कराहता रहा
वो खड़ी -खड़ी  दूर से मुस्कुराती रही
कैसी बेदर्द थी वो ....

किस हक़ से उसने लूटा मुझे
मेरा कुसूर तो ज़रा बताती
सामने खड़ा था मै उसके
वो मुड़ - मुड़ कर  किसी को तलाशती  रही
कैसी बेदर्द थी वो....

बड़ी मग़रूर थी वो
पर, माँ की आँखों का नूर थी वो
सारे मिलकर दीये जलाते रहे
वो फूक -फूक कर सबको बुझाती रही
कैसी बेदर्द थी वो 
मै जोड़ता रहा , वो तोड़ती  रही

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